Thursday, August 11, 2011

इरादा





जो हूँ , जैसी हूँ
अपने ही हाथों से गाढ़ी
मूरत हूँ मै...

कर सको गर स्वीकार इसे
तो साथ चलने का इरादा करना ...

वरना साथी कोई नया चुनना...
ना होगी शिकायत, अफ़सोस ना ही क्रोध मुझे...
के बंधनों से परे है जीने की आदत मुझे...

बंधन हो प्रेम और विशवास का
तो ऊँची होती  है उड़ान...
खुस्लता है नया असमान ...

कर सको गर स्वीकार इसे
तो साथ चलने का इरादा करना...

ना बांधूंगी तुम्हे,
और ना ही बंध पाऊँगी
झूठे दिखावों मे कभी...
हो सके तो गढ़ लेना
कुछ सच्चे आधार  मेरे लिए...

कर सको, गर स्वीकार इसे
तो साथ चलने का इरादा करना...

1 comment:

  1. Read your comments in the Madrasan blog and thought you would be interested to read this:
    http://chapter18.wordpress.com/2011/11/10/to-my-fellow-delhi-brethren/

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